बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

शमी पूजन कर मनाएं विजयादशमी

नवरात्र की पूर्णता के साथ ही देशभर में विजयादशमी का पर्व मनाया जाएगा। विजयादशमी का पर्व अच्छाई की बुराई पर विजय का सन्देश देता है। विजयादशमी पर्व है संकल्प का कि हम अपने अन्तर्तम में उपजी बुराईयों पर विजय प्राप्त कर सन्मार्ग पर अग्रसर हो सकें। देश के अलग-अलग हिस्सों में विजयादशमी का पर्व अपनी-अपनी लोकपरम्पराओं के अनुसार मनाया जाता है। इस दिन रावण दहन भी किया जाता है जो बुराई एवं अहंकार का प्रतीक है। विजयादशमी के दिन शस्त्रपूजा एवं शमी वृक्ष की पूजा का विशेष महत्त्व होता है। विजयादशमी के दिन देश के कुछ हिस्सों में अश्व-पूजन भी किया जाता है। सनातन धर्मानुसार विजयादशमी के दिन प्रदोषकाल में शमी वृक्ष का पूजन अवश्य किया जाना चाहिए। आईए जानते हैं कि शमीवृक्ष का पूजन किस प्रकार किया जाना श्रेयस्कर रहता है-
- विजयादशमी के दिन प्रदोषकाल में शमीवृक्ष के समीप जाकर उसे प्रणाम करें। तत्पश्चात शमीवृक्ष की जड़ में गंगालज/नर्मदाजल/शुद्धजल का सिंचन करें। जल सिंचन के उपरान्त शमीवृक्ष के सम्मुख दीपक प्रज्जवलित करें। दीप प्रज्जवलन के पश्चात शमीवृक्ष के नीचे कोई सांकेतिक शस्त्र रखें। तत्पश्चात शमीवृक्ष एवं शस्त्र का यथाशक्ति धूप,दीप,नैवेद्य,आरती से पंचोपचार अथवा षोडषोपचार पूजन करें। पूजन के उपरान्त हाथ जोड़कर निम्न प्रार्थना करें-
"शमी शम्यते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी॥
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता॥"
-अर्थात हे शमी वृक्ष आप पापों का क्षय करने वाले और दुश्मनों को पराजित करने वाले हैं। आप अर्जुन का धनुष धारण करने वाले हैं और श्री राम को प्रिय हैं। जिस तरह श्री राम ने आपकी पूजा की, हम भी करेंगे। हमारी विजय के रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं से दूर कर के उसे सुखमय बना दीजिये।
- प्रार्थना उपरान्त यदि आपको शमीवृक्ष के समीप शमीवृक्ष की कुछ पत्तियां गिरी मिलें तो उन्हें आशीर्वाद स्वरूप ग्रहण कर लालवस्त्र में लपेटकर सदैव अपने पास रखें। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि आपको शमीवृक्ष से स्वयमेव गिरी पत्तियां ही एकत्र करना है शमीवृक्ष से पत्तियां तोड़नी नहीं हैं। इस प्रयोग से आप शत्रुबाधा से मुक्त एवं शत्रु पराभव करने में सफ़ल होंगे।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

महाआहुतियों से पाएं देवी का आशीर्वाद


नवरात्र के नौ दिनों में श्रद्धालुगण पूर्ण श्रद्धाभाव से देवी की आराधना करते हैं। नवरात्र के नौ दिन यथाशक्ति भगवती की पूजा-अर्चना के उपरान्त अन्तिम दिवस "महानिशा-पूजा" की जाती है। जिसमें राजराजेश्वरी माँ जगदम्बा की प्रसन्नता हेतु हवन किया जाता है। हमारे सनातन धर्म में किसी भी अनुष्ठान की पूर्णता हवन के माध्यम से ही की जाती है। देवी जी की आराधना में हवन का विशेष महत्त्व होता है। हवन के उपरान्त कन्या-भोज कराया जाता है। श्रद्धालुगण "महानिशा-पूजा" का हवन यथाशक्ति व सामर्थ्य अनुसार सम्पन्न कर सकते हैं। किन्तु जिन श्रद्धालुओं द्वारा नवरात्र में दुर्गासप्तशती के सम्पूर्ण तेरह अध्यायों का पाठ किया गया हो उन्हें दुर्गासप्तशती के मन्त्रों से हवन करना एवं प्रत्येक अध्याय की विशेष आहुति जिसे "महाआहुति" कहा जाता है, अर्पण करना श्रेयस्कर रहता है। जो श्रद्धालुगण सप्तशती के मन्त्रों से हवन करने के स्थान पर मात्र देवी के नवार्ण मन्त्र "ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै" का पाठ कर हवन एवं महाआहुतियाँ अर्पण करना चाहते हैं वे देवी के नवार्ण मन्त्र "ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै" की माला के उपरान्त प्रत्येक का अध्याय के निर्दिष्ट मन्त्र का उच्चारण करके माँ दुर्गा को "महाआहुति" अर्पण कर सकते हैं। 

 
आईए जानते हैं कि सम्पूर्ण तेरह अध्यायों की विशेष आहुतियाँ कौन सी हैं-
1. पहला अध्याय-
मन्त्र- ॐ महाकाल्यै स्वाहा
महाआहुति- कमलगट्टा, काली मिर्च, शहद, महुआ, राई
2. दूसरा अध्याय-
मन्त्र- ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा
महाआहुति- जायफ़ल, जावित्री, कद्दू, पीली सरसों, राई
3. तीसरा अध्याय-
मन्त्र- ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा
महाआहुति- उड़द का बड़ा
4. चौथा अध्याय-
मन्त्र- ॐ महालक्ष्म्यै स्वाहा
महाआहुति- पंचमेवा व छुआरा (खारक)
5. पांचवा अध्याय-
मन्त्र- ॐ महासरस्वत्यै स्वाहा
महाआहुति- शक्कर व गन्ना
6. छ्ठा अध्याय-
मन्त्र- ॐ धूम्राक्ष्यै स्वाहा
महाआहुति- जासौन का फ़ूल
7. सातवां अध्याय-
मन्त्र- ॐ चामुण्डायै स्वाहा
महाआहुति- बीला (बिल्वफ़ल), बिल्वपत्र, पालक
8. आठवां अध्याय-
मन्त्र- ॐ रक्ताक्ष्यै स्वाहा
महाआहुति- रक्त चन्दन
9. नौवां अध्याय-
मन्त्र- ॐ भैरव्यै तारा देव्यै स्वाहा
महाआहुति- केला, नागरमोंथा, अगर, तगर
10. दसवां अध्याय-
मन्त्र- ॐ भगवत्यै स्वाहा
महाआहुति- बिजोरा नींबू
11. ग्यारहवां अध्याय-
मन्त्र- ॐ नारायण्यै स्वाहा
महाआहुति- खीर-पूड़ी
12. बारहवां अध्याय-
मन्त्र- ॐ राजराजेश्वर्यै स्वाहा
महाआहुति- दाड़िम (अनार)
13. तेरहवां अध्याय-
मन्त्र- ॐ दुर्गा देव्यै स्वाहा
महाआहुति- श्रीफ़ल 

-ज्योतिर्विद् पं हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
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मंगलवार, 7 अगस्त 2018

शिव को क्या व कैसे चढ़ाएं



हमारे सनातन धर्म की पूजा पद्धति में पुष्प अर्पण का विशेष महत्त्व है। फ़िर चाहे वे पुष्प माला के रूप में हों, अर्चन के रूप में हों या पुष्पांजलि के रूप में। वैसे तो पूर्ण श्रद्धाभाव से अर्पित किए गए
पुष्प ईश्वर स्वीकार कर लेते हैं किन्तु हमारे शास्त्रों में किस देव को कौन से पुष्प चढ़ाए जाएं यह निर्देशित किया गया है। साथ ही साथ यह भी बताया गया है कि पुष्प चढ़ाने की सही विधि कौन सी है। आईए इस पवित्र श्रावण में मास में हम जानते हैं कि चन्द्रमौलिश्वर भगवान शिव को कौन से पुष्प अर्पित किए जाने चाहिए-
भगवान को शिव को अर्पित किए जाने वाले पुष्प-
भगवान शिव को श्वेतार्क मदार अर्थात् सफ़ेद अकाव एवं बिल्वपत्र बहुत प्रिय है। श्रावण मास में भगवान शिव को सफ़ेद अकाव के फूल की माला अर्पित करने से विशेष लाभ होता है। इसके अतिरिक्त भगवान शंकर को नीला अकाव, कनेर, धतूरे का पुष्प, शिव कटास, अपराजिता के पुष्प, शमी पुष्प, शंखपुष्पी, चमेली, नागकेसर, नागचम्पा, खस, तगर्म गूलर, पलाशम केसर, कमल आदि पुष्प भी प्रिय हैं।
शिवजी को नहीं चढाए जाते ये पुष्प-
शिवजी की पूजा में कुछ पुष्पों का चढ़ाया जाना शास्त्रसम्मत नहीं है। वे हैं- कदम्ब, केवड़ा, केतकी, शिरीष, अनार, जूही आदि।
पुष्प अर्पण करने की सही विधि-
किसी भी देवी-देवता को पुष्प अर्पित करने की एक खास विधि होती है। शास्त्रानुसार उसी विधि अनुसार देवी-देवताओं को पुष्प अर्पण करना चाहिए। पुष्प सदैव जिस अवस्था में खिलते हैं उसी अवस्था में अर्पित किए जाने चाहिए अर्थात् पुष्प का मुख आकाश की ओर होना चाहिए। वहीं दूर्वा सदैव अपने ओर करके अर्पित की जानी चाहिए एवं बिल्व पत्र सदैव नीचे मुख रखते हुए चढ़ाना चाहिए। पुष्प अर्पित करने से पूर्व उन्हें सूंघना नहीं चाहिए। कीड़े वाले पुष्प भगवान को अर्पित नहीं किए जाते। जिन पुष्पों में पैर छू गया हो ऐसे पुष्प भी भगवान को अर्पित नहीं किए जाते। भगवान को बासी पुष्प अर्पित नहीं किए जाते। शास्त्रानुसार माली के घर के फूलों को कभी बासी नहीं माना जाता, अत: माली से फूल लेते समय बासी पुष्प का विचार नहीं करना चाहिए।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
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सोमवार, 6 अगस्त 2018

"आस्तिक मुनि की दुहाई" क्यों लिखते हैं..!


हमारे हिन्दू समाज में आज भी कई ऐसी पौराणिक मान्यताएं प्रचलित हैं जिनसे व्यक्ति अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है। सर्प का नाम सुनते ही जनमानस में भयंकर भय व्याप्त हो जाता है। सर्प को काल(मृत्यु) का प्रत्यक्ष स्वरूप माना जाता है। सर्पदंश होने पर आज भी ग्रामीण अंचल में झाड़-फ़ूंक आदि सहारा लिया जाता है जो सर्वथा गलत है। सर्पदंश जैसी विकट परिस्थिति में झाड़-फ़ूंक व टोने-टोटके करने के स्थान पर शीघ्रातिशीघ्र चिकित्सक के पास जाना चाहिए। बहरहाल, आज हम प्राचीन समय में प्रचलित एक परम्परा के बारे में अपने पाठकों को अवगत कराएंगे। आपने यदा-कदा घरों के बाहरी दीवार "आस्तिक मुनि की दुहाई" नामक वाक्य लिखा देखा होगा। ग्रामीण अंचलों में इस वाक्य को घर की बाहरी दीवार पर लिखा हुआ देखना आम बात है। लेकिन क्या आप जानते हैं इस वाक्य को घर के बाहरी दीवारों पर क्यों लिखा जाता है! यदि नहीं, तो आज हम आपको इसकी पूर्ण जानकारी देंगे।
"आस्तिक मुनि की दुहाई" नामक वाक्य घर की बाहरी दीवारों पर सर्प से सुरक्षा के लिए लिखा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस वाक्य को घर की दीवार पर लिखने से उस घर में सर्प प्रवेश नहीं करता। इस मान्यता के पीछे एक पौराणिक कथा है।
कलियुग के प्रारम्भ में जब ऋषि पुत्र के श्राप के कारण राजा परीक्षित को तक्षक नाग ने डस लिया जिससे उनकी मृत्यु हो गई। जब यह बात राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय को पता चली तो उन्होंने क्रुद्ध होकर अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए इस संसार से समस्त नाग जाति का संहार करने के लिए "सर्पेष्टि यज्ञ" का आयोजन किया। इस "सर्पेष्टि यज्ञ" के प्रभाव के कारण संसार के कोने-कोने से नाग व सर्प स्वयं ही आकर यज्ञाग्नि में भस्म होने लगे। इस प्रकार नाग जाति को समूल नष्ट होते देख नागों ने आस्तिक मुनि से जाकर अपने संरक्षण हेतु प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर आस्तिक मुनि ने नागों को बचाने से पूर्व उनसे एक वचन लिया कि जिस स्थान पर नाग उनका नाम लिखा देखेंगे उस स्थान में प्रवेश नहीं करेंगे और उस स्थान से सौ कोस दूर रहेंगे। नागों ने अपने संरक्षण हेतु आस्तिक मुनि को जब यह वचन दिया तब आस्तिक मुनि ने जन्मेजय को समझाया। आस्तिक मुनि के कहने पर जन्मेजय ने "सर्पेष्टि यज्ञ" बन्द कर दिया। इस प्रकार आस्तिक मुनि के हस्तक्षेप के कारण नाग जाति का आसन्न संहार रुक गया। इस कथा के अनुसार ही ऐसी मान्यता प्रचलित है कि आस्तिक मुनि को दिए वचन को निभाने के लिए आज भी सर्प उस स्थान में प्रवेश नहीं करते जहां आस्तिक मुनि का नाम लिखा होता है। इस मान्यता के कारण ही अधिकांश लोग सर्प से सुरक्षा के लिए अपने घर की बाहरी दीवार पर लिखते हैं-
"आस्तिक मुनि की दुहाई।"

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
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बुधवार, 1 अगस्त 2018

ब्राह्मणों की आठ श्रेणियाँ



सनातन धर्मानुसार ब्राह्मणों को इस धरती का देवता माना गया है। वहीं शास्त्रानुसार ब्राह्मण भगवान के मुख कहे जाते हैं। ब्राह्मण सदैव वन्दनीय है। ब्राह्मणों का अपमान ब्रह्म दोष का कारक होता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ब्राह्मणों की भी श्रीणिया होती हैं। स्कद पुराण के अनुसार ब्राह्मणों की आठ श्रेणिया निर्धारित की गई हैं। आज हम पाठकों के लिए इन आठ श्रेणियों का वर्णन करेंगे-

1. द्विज- जनेऊ धारण करने वाला ब्राह्मण "द्विज" कहलाता है।
2. विप्र- वेद का अध्ययन करने वाला वेदपाठी ब्राह्मण "विप्र" कहलाता है।
3. श्रोत्रिय- जो ब्राह्मण वेद की किसी एक शाखा का छ: वेदांगों सहित अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त करता है उसे "श्रोतिय" कहते हैं।
4. अनुचान- जो ब्राह्मण चारों वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसे "अनुचान" कहा जाता है।
5. ध्रूण- जो ब्राह्मण नित्य अग्निहोत्र व स्वाध्याय करता है उसे "ध्रूण" ब्राह्मण कहते हैं।
6. ऋषिकल्प- जो ब्राह्मण अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करके जितेन्द्रिय हो जाता है उसे "ऋषिकल्प" कहते हैं।
7. ऋषि- जो ब्राह्मण श्राप व वरदान देने में समर्थ होता है उसे "ऋषि" कहते हैं।
8. मुनि- जो ब्राह्मण काम-क्रोध से रहित सब तत्वों का ज्ञाता होता है और जो समस्त जड़-चेतन में समभाव रखता हो उसे "मुनि" कहा जाता है।

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया
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मंगलवार, 31 जुलाई 2018

कब से होता युगों का प्रारम्भ


हमारे सनातन धर्म में चार युगों का उल्लेख है। ये चार युग हैं- 1. सतयुग 2. त्रेतायुग 3. द्वापर युग 4. कलियुग। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन चारों युगों में कितने वर्ष होते हैं एवं इन चार युगों का प्रारम्भ किस दिन से होता है! युगों के क्रम में सबसे पहले सतयुग आता है शेष तीनों युग क्रमश: आते हैं। आईए जानते हैं कि यह चारों युग कबसे प्रारम्भ होते हैं एवं कितने वर्षों बाद इनका प्रारम्भ होता है।
1. सतयुग- सतयुग जिसे कृतयुग भी कहा जाता है। सतयुग में कुल 17,28,000 वर्ष होते हैं। शास्त्रानुसार सतयुग का प्रारम्भ अत्यन्त पवित्र कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि से होता है। जिसे अक्षयनवमी भी कहा जाता है। सतयुग में धर्म अपने 4 चरणों से विद्यमान रहता है।
2. त्रेतायुग- त्रेतायुग में कुल 12,96,000 वर्ष होते हैं। शास्त्रानुसार त्रेतायुग का प्रारम्भ वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि से होता है। जिसे अक्षय-तृतीया या अखातीज भी कहा जाता है। त्रेतायुग में धर्म अपने 3 चरणों से विद्यमान रहता है।
3. द्वापरयुग- द्वापर युग में कुल 8,64,000 वर्ष होते हैं। शास्त्रानुसार द्वापर युग का प्रारम्भ माघ मास की पूर्णिमा तिथि से होता है। द्वापर युग में धर्म अपने 2 चरणों से विद्यमान रहता है।
4. कलियुग- कलियुग में कुल 4,32,000 वर्ष होते हैं। शास्त्रानुसार कलियुग का प्रारम्भ आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि से होता है। कलियुग में धर्म अपने 1 चरण से विद्यमान रहता है।

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया
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गुरुवार, 12 जुलाई 2018

नवरात्र में देवी आरधना

 
हमारे सनातन धर्म में नवरात्रि का पर्व बड़े ही श्रद्धा भाव से मनाया जाता है। हिन्दू वर्ष में चैत्र, आषाढ़, आश्विन, और माघ, मासों में चार बार नवरात्रि का पर्व मनाया जाता है जिसमें दो नवरात्र को प्रगट एवं शेष दो नवरात्र को गुप्त नवरात्र कहा जाता है। चैत्र और आश्विन मास के नवरात्र में देवी प्रतिमा स्थापित कर मां दुर्गा की पूजा-आराधना की जाती है वहीं आषाढ़ और माघ मास में की जाने वाली देवीपूजा "गुप्त नवरात्र" में अन्तर्गत आती है। जिसमें केवल मां दुर्गा के नाम से अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित कर या जवारे की स्थापना कर देवी की आराधना की जाती है। आज से आषाढ़ मास की "गुप्त-नवरात्रि" प्रारम्भ होने रही है। आईए जानते हैं कि इस गुप्त नवरात्रि में किस प्रकार देवी आराधना करना श्रेयस्कर रहेगा।
मुख्य रूप से देवी आराधना को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं-
1. घट स्थापना, अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित करना व जवारे स्थापित करना- श्रद्धालुगण अपने सामर्थ्य के अनुसार उपर्युक्त तीनों ही कार्यों से नवरात्र का प्रारम्भ कर सकते हैं अथवा क्रमश: एक या दो कार्यों से भी प्रारम्भ किया जा सकता है। यदि यह भी सम्भव नहीं तो केवल घट-स्थापना से देवीपूजा का प्रारम्भ किया जा सकता है।
2. सप्तशती पाठ व जप- देवी पूजन में दुर्गा सप्तशती के पाठ का बहुत महत्त्व है। यथासम्भव नवरात्र के नौ दिनों में प्रत्येक श्रद्धालु को दुर्गासप्तशती का पाठ करना चाहिए किन्तु किसी कारणवश यह सम्भव नहीं हो तो देवी के नवार्ण मन्त्र का जप यथाशक्ति अवश्य करना चाहिए।
!! नवार्ण मन्त्र - "ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै" !!
3. पूर्णाहुति हवन व कन्या भोज- नौ दिनों तक चलने वाले इस पर्व का समापन पूर्णाहुति हवन एवं कन्याभोज कराकर किया जाना चाहिए। पूर्णाहुति हवन दुर्गा सप्तशती के मन्त्रों से किए जाने का विधान है किन्तु यदि यह सम्भव ना हो तो देवी के "नवार्ण मन्त्र", "सिद्ध कुंजिका स्तोत्र" अथवा दुर्गाअष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र" से हवन सम्पन्न करना श्रेयस्कर रहता है।

किन लग्नों में करें घट स्थापना-
देवी पूजा में शुद्ध मुहूर्त्त एवं सही व शास्त्रोक्त पूजन विधि का बहुत महत्त्व है। शास्त्रों में विभिन्न लग्नानुसार घट स्थापना का फल बताया गया है-
1. मेष-धनलाभ
2. वृष-कष्ट
3. मिथुन-संतान को कष्ट
4. कर्क-सिद्धि
5. सिंह-बुद्धि नाश
6. कन्या-लक्ष्मी प्राप्ति
7. तुला- ऐश्वर्य प्राप्ति
8. वृश्चिक-धनलाभ
9. धनु- मानभंग
10. मकर- पुण्यप्रद
11. कुम्भ-  धन-समृद्धि की प्राप्ति
12. मीन- हानि एवं दुःख की प्राप्ति होती है।

कैसे करें दुर्गासप्तशती का पाठ-
नवरात्र में दुर्गासप्तशती का पाठ करना अनन्त पुण्यफलदायक माना गया है। "दुर्गासप्तशती" के पाठ के बिना दुर्गापूजा अधूरी मानी गई है। लेकिन दुर्गासप्तशती के पाठ को लेकर श्रद्धालुओं में बहुत संशय रहता है। शास्त्रानुसार दुर्गाशप्तशती का पाठ करने का विधान स्पष्ट किया गया है। यदि एक दिन में पू्र्ण शास्त्रोक्त-विधि से दुर्गासप्तशती का पाठ सम्पन्न करने की सामर्थ्य ना हो तो निम्नानुसार क्रम व विधि से भी दुर्गासप्तशती का पाठ करना श्रेयस्कर रहता है। आईए जानते है दुर्गासप्तशतीके पाठ की सही विधि क्या है। यदि एक दिन में दुर्गासप्तशती का पूर्ण पाठ करना हो तो निम्न विधि से किया जाना चाहिए-
1. प्रोक्षण (अपने ऊपर नर्मदा जल का सिंचन करना)
2. आचमन
3. संकल्प
4. उत्कीलन
5. शापोद्धार
6. कवच
7. अर्गलास्त्रोत
8. कीलक
9. सप्तशती के 13 अध्यायों का पाठ (इसे विशेष विधि से भी किया जा सकता है)
10. मूर्ती रहस्य
11. सिद्ध कुंजीका स्त्रोत
12. क्षमा प्रार्थना

विशेष विधि-
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दुर्गा सप्तशती के 1 अध्याय को प्रथम चरित्र। 2,3,4 अध्याय को मध्यम चरित्र एवं 5 से लेकर 13 अध्याय को उत्तम चरित्र कहते है। जो श्रद्धालुगण पूरा पाठ (13 अध्याय) एक दिन में सम्पना करने में सक्षम नहीं हैं वे निम्न क्रम से भी दुर्गासप्तशती का पाठ कर सकते हैं-
1. प्रथम दिवस- 1 अध्याय
2. द्वितीय दिवस- 23 अध्याय
3. तृतीय दिवस- 4 अध्याय
4. चतुर्थ दिवस- 5,6,7,8 अध्याय
5. पंचम् दिवस- 910 अध्याय
6. षष्ठ दिवस- 11 अध्याय
7. सप्तम् दिवस- 1213 अध्याय
8. अष्टम् दिवस- मूर्ती रहस्य,हवन, व क्षमा प्रार्थना
9. नवम् दिवस- कन्याभोज इत्यादि।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
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